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दिल का टुकड़ा है परदेस में

राणा जी की कलम से
राणा जी की कलम से
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दिल का टुकड़ा है परदेस में
माँ रोती है चेहरा छुपा खेस में
रहती है तब मेरे आस पास
जब पीड़ा होती है किसी ठेस में
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पहचान ना ले कोई दिल के जख्म
मेरी बात करते हुए जोर से हंसती है
अपना दिल बहलाने को
मेरी तरक्की के क़सीदे पढ़ती है
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बंगले गाड़ी की फोटो दिखाती है
बड़ी नौकरी के बारे में सबको बताती है
देख ने कोई आँखों का पानी
इसीलिए किसी से आँख नहीं मिलाती है
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ऐसा नहीं मैं इससे अनजान हूँ
लेकिन अपनी जरूरतों का गुलाम हूँ
बचपन की यादे आँखे भिगो देती है
आखिर मैं भी तो एक इन्सान हूँ
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सोचा था दो चार साल खूब कमाऊंगा
फिर सारी उम्र गाँव में बिताऊंगा
वही आँगन होगा वही खेत होगा
उन्ही दोस्तों के साथ ठहाके लगाऊंगा
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दोस्त है बहुत पर दिल मिलते नहीं है
यहाँ भी है बहारे पर वो फुल खिलते नहीं है
यादों की टीस करती है इतना छलनी
ऐशोआराम से भी ये घाव सिलते नहीं है
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पता नहीं क्या खोकर क्या पाउँगा
मायाजाल में क्या ऐसे ही खो जाऊंगा
कुछ सालों में लोट जाऊंगा वापिस
कब तक ये कह मन को समझाऊंगा
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अवधेश राणा

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